सुन्दरकाण्ड का सौंदर्य
वर्षों से रामचरितमानस के सम्पूर्ण सुन्दरकाण्ड का रोज़ पाठ करता हूँ। पहले दिन में अपनी मर्ज़ी के अनुसार खाने के पहले नहाकर किया करता था। पर जब से यमुना ज्यादा अस्वस्थ रहने लगीं, और मेरे सहायता की ज़रूरत पड़ने लगी, मैं बहुत सबेरे ही, नित्यक्रियाएं- स्नान, शान्तिपाठ, गीता के एक अंश का पाठ, सुन्दरकाण्ड का पाठ, घूमना आदि खत्म कर लेता हूँ, जिससे ज़रूरत के अनुसार किसी समय उनकी सहायता कर सकूँ। और तभी से मुझे इस सुन्दरकाण्ड की सुन्दरता भी कुछ कुछ समझ में आने लगी।मंगलाचरण के ब्रह्म रूप सगुन राम के वर्णन के लिये व्यवहृत शब्दों के अर्थ की समझ हुई। दोहों,चौपाइयों के रोज़ नये नये राज खुलने लगे।कथा भाग का प्रयोजन समझ आया।
रामचरितमानस के सातों काण्डों में सुन्दरकाण्ड सबसे ज्यादा लोकप्रिय और प्रसिद्ध है। बहुत संतों ने इसका दैनिक पाठ करने की बात कही है। तुलसीदास ने रामचरितमानस के बालकाण्ड और फिर इस सुन्दरकाण्ड में हनुमान की भी मंगलाचरण में प्रार्थना की है। कहा जाता है कि तुलसीदास की भगवान राम और लक्ष्मण से भेंट हनुमानजी ने ही करवाई थी चित्रकूट के घाट पर। सुन्दरकाण्ड की सुन्दरता पर कोई सवाल ही नहीं उठाया जा सकता।
सुन्दरकाण्ड के पहले भाग के मुख्य हनुमान जी हैं और दूसरे खण्ड में विभीषण। हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार दोनों रामभक्त सदा अमर हैं। एक तीसरे अमर जामवन्त का प्रसंग भी सुन्दरकाण्ड में आया है।
पहला भाग
मंगलाचरण की सुन्दर भगवान की प्रार्थना-
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥
हे राम ! मैं सत्य कहता हूँ और आप ही सबके अंतरात्मा में ही हैं। मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मुझे अपनी पूर्ण भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए।
यही एक ज्ञानी भक्त की ज़रूरत होती है।
इसके बाद वे श्लोक हैं जिससे हनुमान जी का ध्यान किया जाता है-
हनुमान जी को लंका में प्रवेश के पहले तीन बलशाली स्त्रियों ने बाधा पहुँचाने की कोशिश की, उनको अपने बुद्धि एवं असीम बल से हराना पड़ा।
पहलीबाधा- देवताओं द्वारा हनुमानजी के बल, बुद्धि की परीक्षा के लिये सुरसा द्वारा प्रस्तुत बाधा, जो उन्हें खाने की मनसा प्रगट की। वह मुँह का विस्तार करती गई, हनुमान अपने को उससे दुगुना बढ़ाते गये, पर फिर अन्त में अपने को अत्यंत छोटा कर हनुमान जी उसके मुँह से प्रवेश कर उसके कान के रास्ते निकल जाते हैं। इस तरह बुद्धि से सुरसा को हरा, और उसका आशीर्वाद पा आगे की यात्रा पर निकल जाते हैं।
दूसरी बाधा- समुद्र के भीतर ही रहनेवाली एक अदृश्य शक्तिशाली सिहिंनी है और उनकों भी समुद्र में डुबा कर मारना चाहती है, अपने अन्य आकाशचारी शिकारों की तरह, उनको अपना आहार बनाना चाहती है। हनुमान जी उसे अपने अपूर्व बल से समुद्र के भीतर ही मार कर आगे निकल जाते हैं।
तीसरी- लंका के प्रवेश द्वार पर बैठी लंकिनी मिलती है जो उनको मच्छड के छोटे रूप लेने पर भी देख लेती है और कमज़ोर जान रोकने की कोशिश करती है, पर उनके एक मुक्के के प्रहार से गिर पड़ती है और हनुमान लंका में प्रवेश कर जाते है।
लंकिनी को रावण के ब्रह्मा के वरदान देते कही बात की याद आती है। लंकिनी हनुमान को ब्रह्म राम का भक्त दूत समझ जाती है और आशीर्वाद देते हुए कहती है-
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥
‘हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर दूसरे पलड़े पर रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो क्षण मात्र के सत्संग से होता है।’
सभी बड़े कामों में ऐसे ही बाधा आती हैं जिन्हें बुद्धि और आत्मबल से पार किया सकता है।
ये तीनों शक्तियाँ सात्विक, राजसिक, आसुरी प्रवृतियों के प्रतीक लगती हैं।
लंकिनी आगे कहती है-
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥
गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥
‘कोशलाधिपति राम को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उस ब्रह्म के सगुन अवतार राम के लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता आ जाती है। सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे श्री रामचंद्रजी ने एक बार कृपा करके देख लिया।’
इन तीनों बाधाओं के पहले समुद्र ने भी हनुमान जी को राम का दूत समझ लिया और मैनाक पर्वत को उनके विश्राम के लिये भेजा, पर वे उसे छूकर प्रणाम किये और आगे बढ़ गये थे।
लंका के असुर या निशाचर या दैत्य मनुष्य ही थे, पर अधिकांश भगवद्गीता में वर्णित आसुरी गुणों के लोग थे, जिनका राजा रावण ब्राह्मण और विद्वान होते भी असुरी भावों- अहंकार, काम, क्रोध, लोभ आदि की सब सीमा पार कर चुका था। वह ब्राह्मण के लिये आवश्यक सात्त्विक गुणों से हीन हो चुका था। अत: अच्छे लोग लंका में चुपचाप जीवन यापन करते थे। रावण से संबंध के कारण विभीषण, त्रिजटा, माल्यवन्त, मन्दोदरी, यहाँ तक कि कुम्भकर्ण भी केवल अपनी जीवन यापन के लिये उसके साथ थे। लंका के वर्णन में तुलसीदास ने केवल एक पंक्ति वहाँ के माँसाहारियों की बात कही है, ‘कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥’
लंका में सीता की खोज करते हुये अचानक हनुमान जी एक महल के दिवालों पर राम नाम लिखा देख समझ जाते है कि वह एक संत पुरूष का घर है।वह रावण के छोटे भाई विभीषण का घर था, और उस घर देखकर ही हनुमान जी सोचते हैं –
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥
‘चलो इनसे हठ करके अपनी ओर से ही परिचय कर लूँ, क्योंकि साधु से कार्य की हानि नहीं होती, प्रत्युत लाभ ही होता है।’
हनुमान का परिचय पाने पर राम भक्त विभीषण अपनी दीनता बताते हुए भगवान की कृपा की बात करते है, जिसे हम सबको समझना चाहिये।
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥
राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥
‘मेरा तामसी शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और न मन में श्री रामचंद्रजी के चरणकमलों में प्रेम ही है, परंतु हे हनुमान्! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्री रामजी की मुझ पर कृपा है, क्योंकि हरि की कृपा के बिना संत नहीं मिलते। रामविमुख पुरुष की संपत्ति और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसका पाना न पाने के समान है। जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं है। जिन्हें केवल बरसात के पानी का ही आसरा है, वे वर्षा बीत जाने पर फिर तुरंत ही सूख जाती हैं।’
विभीषण से सीता के रहने की जगह की जानकारी लेकर हनुमान जी अशोक-वाटिका में पहुँच उस अशोक के बृक्ष पर छिप कर बैठ जाते हैं जिसके नीचे सीता बैठी हैं। उनकी अवस्था देख दुखी होते हैं।इतने में रावण अपनी पत्नी मंदोदरी के साथ आता है एवं साम, दाम, दंड आदि सभी तरीक़ों से सीता का मन जीतना चाहता है। पर देवी सीता साहस से उसे झिड़कती है-
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥
अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥
सठ सूनें हरि आनेहि मोही। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥
‘हे रावण! सुन, क्या जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल सकती है? तू अपने लिए भी ऐसा ही मन में समझ ले। रे दुष्ट! तुझे श्री रघुवीर के बाण की खबर नहीं है। रे पापी! तू मुझे सूने में हर लाया है। रे अधम! निर्लज्ज! तुझे लज्जा नहीं आती?’
इतना सुनते ही रावण सीता को मारने हेतु तलवार निकाल लेता है। फिर भी सीता डरती नहीं, वल्कि कहती हैं-
चंद्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल संजातं॥
सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा॥
‘हे चंद्रहास तलवार, श्री राम की विरह की अग्नि से उत्पन्न मेरी बड़ी भारी जलन को तू हर ले, तेरी धारा ठंडी और तेज है, तू मेरे दुःख के बोझ को हर ले।’
मंदोदरी के समझाने पर रावण सीता को एक महीने का समय दे एवं रक्षिका राक्षसियों को सीता को विभिन्न तरीक़े से तंग करने का आदेश दे चला जाता है। त्रिजटा नाम की उन राक्षसियों की मुखिया उन लोगों को पिछले रात के अपने सपने की बात बताती है जिसमें राम के आगमन, युद्ध में रावण के मरने, और विभीषण के राजा बनने की बात बताती है। रक्षिकायें भी डर कर घबड़ाकर इधर उधर चली जातीं हैं। पर सीता का राम के वियोग ब्यथा बहुत मार्मिक है। सीता त्रिजटा से आत्मदाह के लिये आग की व्यवस्था करने को कहतीं है। त्रिजटा ‘रात में आग कहाँ मिलेगा’ कह कर चली जाती है। सीता विरहाकुल हो कहती हैं-
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला। मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला॥
देखिअत प्रगट गगन अंगारा। अवनि न आवत एकउ तारा॥
पावकमय ससि स्रवत न आगी। मानहुँ मोहि जानि हतभागी॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका॥
नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥
देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता॥
‘सीताजी मन ही मन कहने लगीं- क्या करूँ? विधाता ही विपरीत हो गया है। न आग मिलेगी, न पीड़ा मिटेगी। आकाश में अंगारे प्रकट दिखाई दे रहे हैं, पर पृथ्वी पर एक भी तारा नहीं आता। चंद्रमा अग्निमय है, किंतु वह भी मानो मुझे हतभागिनी जानकर आग नहीं बरसाता। हे अशोक वृक्ष! मेरी विनती सुन। मेरा शोक हर ले और अपना (अशोक) नाम सत्य कर। तेरे नए-नए कोमल पत्ते अग्नि के समान हैं। अग्नि दे, विरह रोग को बढ़ाकर सीमा तक न पहुँचा।’
सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर वह क्षण हनुमान्जी को कल्प के समान बीता।
सीता को अकेले देख हनुमानजी राम की दी हुई मुद्रिका नीचे गिरा देते हैं। राम की मुद्रिका को पहचान सीता हनुमान को पास आने को कहती है।बातचीत के दौरान हनुमान जी सीता के प्रश्न का उत्तर देते हुए राम के बिरह संदेश का भी मार्मिक वर्णन करते हैं-
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू॥
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥
कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥
हनुमान्जी बोले-श्री रामचंद्रजी ने कहा है कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए हैं। वृक्षों के नए-नए कोमल पत्ते मानो अग्नि के समान, रात्रि कालरात्रि के समान, चंद्रमा सूर्य के समान; और कमलों के वन भालों के वन के समान हो गए हैं। मेघ मानो खौलता हुआ तेल बरसाते हैं। जो हित करने वाले थे, वे ही अब पीड़ा देने लगे हैं। शीतल, मंद, सुगंध वायु साँप के श्वास के समान जहरीली और गरम हो गई है; मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घट जाता है। पर कहूँ किससे? यह दुःख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का सत्य एक मेरा मन ही जानता है; और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले।
प्रभु का संदेश सुनते ही जानकीजी प्रेम में मग्न हो गईं। उन्हें शरीर की भी सुध न रही।
अन्त में सीता के राम के सेना के बल पर संदेह जताने पर हनुमान अपना विशाल रूप दिखाते हैं। और अपनी भूख मिटाने के लिये उनकी आज्ञा ले अशोक-बाटिका में जाते हैं।जब वाटिका के रक्षक राक्षसगण उनको रोकने एव मारने की कोशिश करते हैं, हनुमान उन्हें मार डालते है और बाग को तहस नहस करने लगते हैं। इसकी खबर रावण तक पहुँचती है। वह पहले अपने सेनानायकों, फिर बेटे अक्षकुमार को भेजता है, पर हनुमान जी उन्हें मार देते है। फिर रावण मेघनाद को हनुमान को बिना मारे बांध कर लाने के लिये भेजता है। पहले हनुमान मेघनाद को मूर्छित कर देते हैं, पर जब वह ब्रह्मवाण चलाता है, तो हनुमान उसको श्रद्धा दिखाते हुए अपने आप बँन्धवा कर रावण के दरबार में ले जाये जाते हैं, जिसकी उनकी इच्छा थी।
हनुमान जी पहले अपने को राम का दूत बता रावण को सीता को लौटा देने की सलाह देते है। फिर राम को ब्रह्म का अवतार और उनके असीम शक्ति और रावण की बालि आदि से पराजयों की कहानियों सभागृह में बताते हुए कहते हैं-
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा॥
जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन॥
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥
‘जिनके बल से हे दशशीश! ब्रह्मा, विष्णु, महेश क्रमशः सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करते हैं, जिनके बल से सहस्रफणों वाले शेषजी पर्वत और वनसहित समस्त ब्रह्मांड को सिर पर धारण किये हुए हैं; जो देवताओं की रक्षा के लिए नाना प्रकार की देह धारण करते हैं और जो तुम्हारे जैसे मूर्खों को शिक्षा देने वाले हैं, जिन्होंने राजा जनक द्वारा आयोजित यज्ञ मे शिवजी के कठोर धनुष को तोड़ डाला, सभी उपस्थित राजाओं जिसमें खुद रावण भी था, का गर्व चूर्ण कर दिया । फिर अंहकारी रावण के बालि द्वारा हारने की याद दिलाते हैं। इस पर रावण उन्हें मारने का आदेश देता है, पर विभीषण दूत के प्रति राजा का उचित व्यवहार के बतानेपर, रावण उनकी पूँछ जला देने का आदेश देता है। राक्षसगण उनकी पूँछ पर कपड़े लपेटने लगते हैं और हनुमान अपनी पूँछ बढ़ाते जाते हैं। और जब उनकी पूँछ जलाने के लिये घी डाल आग लगा देते हैं, तब फिर अचानक हनुमान छोटा रूप ले लंका के महलों पर कूद चढ़ कर पूरे लंका को जला डालते हैं। लंका को पूरी जला, समुद्र में पूँछ की आग बुझा सीता से मिलते हैं और राम को अपनी सीता से मिलने की पहचान का चिन्ह चूडामनि पाकर सीताजी को ढाढ़स दे तीव्र गति से वापस चल देते हैं। हनुमान को जाता देख सीता कहती हैं- एक महीने में अगर राम नहीं आये तो मुझे मरा पायेंगे और
‘दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ सम संकट भारी।’
‘दीनों-दुःखियों पर दया करते रहिये आपही सब हो और मैं दीन हूँ। अतः उस अनुकम्पा की शक्ति से मेरे भारी संकट को दूर कीजिए।’
आज यह चौपाई राम को स्मरण करनेवाली एक लोकप्रिय पुकार बन गई है।
अपने साथियों को साथ ले हनुमानजी किष्किन्धा पहुँच जाते हैं। उनके आने की खबर पा राजा शुग्रीव सभी के साथ राम के पास पहुँचता है। हनुमान के कृतित्व की जानकारी दल के नेता के रूप में जामवन्त बताते हैं। हनुमानजी राम को सीता की अवस्था उनके ही शब्दों इस तरह बताते हैं-
दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥
अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी॥
‘आप दीनबंधु हैं, शरणागत के दुःखों को हरने वाले हैं और मैं मन, वचन और कर्म से आपके चरणों की अनुरागिणी हूँ। फिर आपने मुझे किस अपराध से त्याग दिया? हाँ, एक दोष मैं अपना अवश्य मानती हूँ कि आपका वियोग होते ही मेरे प्राण नहीं चले गए, किंतु हे नाथ! यह तो नेत्रों का अपराध है जो प्राणों के निकलने में हठपूर्वक बाधा देते हैं। विरह अग्नि है, शरीर रूई है और श्वास पवन है, इस प्रकार यह शरीर क्षणमात्र में जल सकता है, परंतु नेत्र अपने हित के लिए प्रभु का स्वरूप देखकर सुखी होने के लिए आँसू बरसाते हैं, जिससे विरह की आग से भी देह जलने नहीं पाती।’
फिर राम सुग्रीव द्वारा बुलाई बन्दर भालुओं की सेना ले समुद्र के किनारे आ जाते हैं।
यहाँ तक सुन्दरकाण्ड में हनुमान की प्रमुखता रहती है और इसके बाद के प्रसंग में विभीषण की-
दूसरा भाग
सुग्रीव के बानर भालुओं की सेना ले राम के समुद्र किनारे पहुँच जाने की खबर रावण की पत्नी मंदोदरी दूतों से सुनती है। जब रावण सभा में जाने के समय उनके कक्ष में आता है तो उसे रामदूत हनुमान के बलबुद्धि की याद दिला वे रावण से सीता को राम को लौटाने की प्रार्थना करती है। पर उसकी सलाह पर ध्यान न देते हुए रावण दरबार में आ अपने चाटुकार सचिवों की सलाह माँगता है। वे उसके भय को अनर्थक बताते हैं। उस समय तुलसीदास राजधर्म की एक नीति पूर्ण दोहे से राजा रावण के भय के कारण उसके सचिवों की अवस्था बताते हैं।
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥
‘मंत्री, वैद्य और गुरु- ये तीन यदि राजा के अप्रसन्नता के भय के कारण राजा को उचित राय छोड़ जो प्रिय लगे वही बोलते हैं, तो क्रमशः राज्य, शरीर और धर्म- इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है।’
विभीषण भी दरबार में आता है और अपने अंहकारी बड़े भाई को राम की असीम शक्ति को बता उसे उनकी पत्नी सीता को लौटा देने की ज्ञानयुक्त सलाह देता है।
‘जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥’
‘ हे राजन! जो मनुष्य अपना कल्याण, सुयश, सुबुद्धि, शुभ गति और नाना प्रकार के गुणों का सुख चाहता हो, वह परस्त्री को चौथ के चंद्रमा की तरह त्याग दे, जैसे लोग चौथ के चंद्रमा को देखने की इच्छा को नुक़सान होने कारण त्याग देते हैं, उसी प्रकार परस्त्री की तरफ़ वासनायुक्त भाव नहीं रखना चाहिये।
और फिर कहता है-
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥
हे राजन्! काम, क्रोध, मद और लोभ- ये सब नरक के रास्ते हैं, इन सबको छोड़कर श्री रामचंद्रजी का भजन कर जीवन मुक्त होने की चेष्टा करनी चाहिये, जैसा संत व्यक्ति करते हैं ।
विशेष- यह दोहा भगवद्गीता के दैवी-आसुरी सम्पदायोग नाम के १६वें अध्याय के श्लोक २१ की याद दिलाता है जो नीचे दिया है-
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥
काम, क्रोध तथा लोभ- ज़िन्दगी में महान कष्ट के कारण बनते हैं। ये तीन प्रकार के नरक के द्वार हैं। अतएव इन तीनों का पूर्ण रूप से त्याग कर देना चाहिए।
विभीषण रावण से राम के ब्रह्म रूप की शक्ति का वर्णन करता है-
तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥
हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं। वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। वे संपूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान के भंडार भगवान् हैं, वे निरामय विकाररहित, अजन्मे, व्यापक, अजेय, अनादि और अनंत ब्रह्म हैं, ब्रह्म के सगुन अवतार हैं।
फिर बताता है कि राम अपने भक्तों के प्रति कितने उदार हैं-
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जिसे संपूर्ण जगत् का द्रोह करने का पाप लगा है, उसको भी शरण जाने पर प्रभु त्याग नहीं करते।
विभीषण रावण को मनाने या बचाने का आख़िरी प्रयत्न करते हुये कहता है-
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥
हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि यानि अच्छी बुद्धि और कुबुद्धि यानि खोटी बुद्धि सबके मन में रहती है, सुबुद्धि है नाना प्रकार की सुख-सम्पदाएँ देती है और जिसमे कुबुद्धि होती है, उसको कुबुद्धि के चलते तरह तरह के दुःख ही भोगते रहते पडता है।
अहंकारी बड़ा भाई अपने छोटे भाई विभीषण पर पद प्रहार करता है, जो उसकी आदत बन गई है । फिर भी विभीषण अपनी बात मनवाने के लिये रावण का पैर बार बार पकड़ता है। जब रावण नहीं मानता, उसे राम के पास जा उन्हीं को सलाह देने को कहता है। विभीषण बड़े भाई को छोड़ राम के पास जाने का निर्णय ले उनके पास अपने सचिवों सहित चल देते हैं। तुलसीदास संतों के अपमान करने का फल बताते हैं जो शिव के शब्दों में उमा को संबोधित है, क्योंकि शिव के मुख से राम की कथा सुनाई जाती है-
साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥
हे भवानी! साधु का अपमान तुरंत ही संपूर्ण कल्याण की नाश कर देता है।
विभीषण को रामदल की ओर आने का समाचार सुन राम सुग्रीव की परीक्षा लेते हैं। वे पूछते हैं कि विभीषण के साथ क्या व्यवहार करना चाहिये। बानरराज सुग्रीव के उसे बाँध कर रखने की सलाह पर राम सुग्रीव को शरणागत के प्रति राजा को कैसे व्यवहार करना चाहिये, बताते हुए कहते हैं-
‘सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥’
‘जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे छोटे विचार के लोग होते हैं, वे पापी होते हैं, उन्हें देखने से भी पाप लगता है।
जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।’
(गीता में भगवान कृष्ण ऐसा ही कहते हैं-
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥9.30॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥9.31॥
(अर्थ के लिये- https://drishtikona.files.wordpress.com/2022/11/irs-my-favourite-shlokas-from-scriptures.pdf)
(भगवान) राम अपने सेनानायकों को अपनी भक्तों का व्यवहार को समझाते हैं-
‘पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई॥
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥’
‘पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता। यदि वह, (रावण का भाई, विभिषण) अगर सच में दुष्ट हृदय का होता तो क्या वह मेरे सम्मुख आ सकता था? जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते।’
तब वे हनुमान, अंगद आदि को विभीषण को सादर ले आने का आदेश देते हैं।
राम से मिल विभीषण अपने लंका में रहते समय का दर्द बताता है-
बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥
‘हे स्वामी! नरक में रहना वरन् अच्छा है, परंतु विधाता को दुष्ट का संग कभी न देना चाहिये। ‘
ब्रह्म भगवान राम विभीषण को अपना स्वभाव बताते हुये कहते हैं-
‘जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही॥
तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥
अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥’
अगर कोई मनुष्य संपूर्ण जड़-चेतन जगत् का भी द्रोही हो, पर यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण में आ जाए….और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूँ; माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार- सबके ममत्व रूपी सम्बन्धों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी से बांध, अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है; जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है -ऐसा सज्जन मेरे हृदय में वैसे ही बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है। इसीतरह तुम सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं।
राम के पूछने पर विभीषण समुद्र को अपनी सेना सहित पार करने के उपाय जानने के लिये समुद्र की प्रार्थना करने की राय देते हैं। पर यह लक्ष्मणजी को ठीक नहीं लगता और वे कहते हैं- ‘कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥’ यह दैव तो कायर के मन को तसल्ली देने का उपाय है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं। पर फिर भी अपने मित्र भक्त विभीषण का मान रखने कि लिये लक्ष्मण को कहते हैं कि वह भी करूँगा, देखना।
तीन दिन की प्रार्थना के बाद भी समुद्र के आचरण में कुछ अन्तर नहीं आने पर राम को अत्यन्त आक्रोश आता है, और कहते है- ‘भय बिनु होइ न प्रीति’, लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ,’ एक नीति की बात भी कहते हैं-
‘सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥
ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥’
‘मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से उदारता का उपदेश,
ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शांति की बात और कामी से भगवान् की कथा वैसे ही व्यर्थ प्रयास होता है, जैसे ऊसर जमीन में बीज बोना जिससे फल नहीं मिलता।
काकभुशुण्डिजी गरूड़ ( रामकथा वाले दूसरे पात्र) को राम कथामें कहते हैं-
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥
‘गरुड़जी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। कम बुद्धि के लोग विनय से नहीं मानते, वे डाँटने पर ही रास्ते पर आते है।’
राम ग़ुस्से मे अपने धनुष पर बाण ले प्रत्यंचा चढ़ा लेते हैं और समुद्र को संधान कर चलानेवाले होते हैं। ठीक उसी समय समुद्र राम के लिये बहुत सारे रत्नों का उपहार ले उपस्थित होता है और राम के पैर पकड़ अपने व्यवहार का कारण बताता है-
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥
तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥
हे नाथ! मेरे सब दोष क्षमा कीजिए। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ ( अपना प्रकृति) है। आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रंथों ( जैसे गीता) ने यही गाया है। ‘जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है।’
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥
‘प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा देना चाहा, किंतु जीवों का स्वभाव भी आपका ही बनाया हुआ है। इसीलिये ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं।’
समुद्र द्वारा कहा हुआ यह आख़िरी दोहा, बीच बीच में हमारे अल्पबुद्धि के राजनीतिज्ञों के निरर्थक विवाद का बिषय बनता रहता है। उनको न प्रसंग की समझ होती है, न अर्थ की, यद्यपि बहुत ज्ञानी विद्वानों ने सही अर्थ बताने की बार बार कोशिश की है। तुलसीदास के रामचरितमानस को देश और दुनिया के बड़े बड़े विद्वानों ने ‘विश्व के महानतम ग्रंथों में एक’ का दर्जा दिया है। हमें इसका नित्य पाठ कर एक सफल जीवन यापन का प्रयास करना चाहिये।
इसके बाद राम को समुद्र अपने को पार करने के लिये राम के ही सेना के पुल बनाने के काम में दक्ष नल और नील का नाम बताता है और अपनी तरफ़ से भी सहायता का वायदा करता है। तब वह राम से अपने एक शत्रु का संहार करा और उनके बल का परिचय पा ख़ुशी ख़ुशी चला जाता है। मैं खुद यह समझ नहीं सका हूँ कि किसके लिये समुद्र ने कहा है- एहिं सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खर नर अघ रासी॥
क्या पाठकों में कोई इसे जानता है?
मेरा अन्तिम आग्रह हिन्दी भाषी नई शिक्षित पीढी से है। मैं अपने पूरे 84+ वर्ष के जीवन के अनुभव से कहता हूँ कि अपनी उम्र में जितनी जल्दी हो सके हमें धीरे धीरे उपनिषदों, भगवद्गीता, रामचरितमानस के पाठ से जुड़ जाना चाहिये एक ज़रूरी काम की तरह। जीवन सुखमय, शान्तिमय हो जायेगा। (ऊपर दिये लिंक से कुछ सहायता मिल जायेगी।)